पुराणों में किस प्रकार के श्राद्ध का वर्णन? जानिए पुराणों में श्राद्ध का वर्णन और महत्व

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श्राद्ध का वर्णन

पुराणों में श्राद्ध का वर्णन और महत्व- प्रत्येक वर्ष भाद्रपद के महीने के 15 दिन की अवधि को पितृ पक्ष या श्राद्ध पक्ष कहते हैं। इन 15 दिनों में अपने पूर्वजों को जल दान दिया जाता है और उनकी मृत्यु तिथि पर पार पार्वण श्राद्ध किया जाता है। श्राद्ध का अर्थ है जो श्रद्धा से किया जाए, इसीलिए श्राद्ध में पितरों की आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धा पूर्वक जो कर्म किया जाता है वह श्राद्ध है। शास्त्रों में श्राद्ध का वर्णन करते हुए यह बात उल्लेखित है कि प्रत्येक मनुष्य को अपने पूर्वजों का श्राद्ध अवश्य करना चाहिए, क्योंकि इससे बढ़कर कल्याणदायक मार्ग दूसरा कोई नहीं है।

पुराणों में श्राद्ध का वर्णन और महत्व:

मानव पर तीन प्रकार के ऋण मुख्य माने जाते हैं – पित्र ऋण, देव ऋण और ऋषि ऋण। शास्त्रों में जिस प्रकार श्राद्ध का वर्णन हुआ है, उसके अनुसार इन तीनों में सर्वोपरि पितृ ऋण ही होता है। पिता का नहीं बल्कि इसमें माता-पिता के साथ वे सभी बुजुर्ग शामिल होते हैं जिनका हमारे शरीर धारण करने में और इसके विकास में योगदान है। उन्हीं के कारण हम यह दुनिया देख पाते हैं, जीवन का आनंद ले पाते हैं, इसीलिए उनकी तृप्ति और मुक्ति के लिए श्राद्ध हमारा परम कर्तव्य है।

श्राद्ध के दौरान जो पिंडी बनाकर उस पर अन्न और जल अर्पित करते हैं, उसी से प्रेत रुपी सूक्ष्म शरीर अपना अंश लेकर ब्रह्मांड में वापसी करते हैं और पितरों में सम्मिलित हो जाते हैं। ब्रह्म पुराण में तो इसकी महिमा यहां तक वर्णित है कि श्रद्धा एवं विश्वास के साथ श्राद्ध करने से पशु-पक्षी जैसी योनि में पितरों का पोषण भी पिण्डों पर गिरी हुई पानी की बूंदों से हो जाता है।

अब अगर आपके मन में श्राद्ध के लाभ और आवश्यकता को लेकर प्रश्न उठ रहे हैं तो हम बता दें कि विभिन्न पुराणों में श्राद्ध का वर्णन मिलता है जिसमें पितृ पूजन का महत्व बताया गया है। कर्म पुराण में वर्णित है की एकाग्रता से श्राद्ध कर्म करने वाले व्यक्ति के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और वह संसार चक्र के बंधनों से मुक्त हो जाता है। मार्कण्डेय पुराण कहता है कि जब पितर तृप्त हो जाते हैं तो वे श्राद्ध करने वाले व्यक्ति को दीर्घायु, राज्य, सुख-समृद्धि, विद्या लाभ, धनसंपदा, संतति, स्वर्ग एवं मोक्ष देते हैं। वहीं गरुण पुराण के अनुसार पितृ संतोष प्राप्त कर श्राद्धकर्ता को आयु, यश-कीर्ति, पुत्र, वैभव, सुख-शांति, पुष्टि, पशु, बल आदि प्रसन्न होकर देते हैं।

श्राद्ध का वर्णन

श्राद्ध के अवसर कौनसे होते हैं

शास्त्रों में श्राद्ध का वर्णन करते हुए, उसके लिए उपयुक्त अवसरों का भी वर्णन मिलता है। श्राद्ध के मुख्यतः 16 अवसर बताए जाते हैं, जो इस प्रकार हैं :-

  1. एक वर्ष की अमावस्याएं (12)
  2. पुणादितिथियां (4)
  3. मन्वादी तिथियां (14)
  4. संक्रांतियां (12)
  5. वैधृति योग (12)
  6. व्यतिपात योग (12)
  7. पितृपक्ष (15)
  8. अष्टकाश्राद्ध (5)
  9. अंवष्टका (5)
  10. पूर्वेद्यु: (5)

कितने प्रकार के श्राद्ध होते हैं

हमारे पुराणों के अनुसार श्राद्ध मुख्यतः 12 प्रकार के होते हैं। ये इस प्रकार हैं :-

  1. नित्य श्राद्ध – दैनिक रूप से किए जाने वाले श्राद्ध को नित्य श्राद्ध कहते हैं। यह जल का तर्पण मात्र करने से भी संपन्न हो जाता है।
  2. नैमित्तिक श्राद्ध – किसी को निमित्त मानकर विशेष अवसरों पर किया जाने वाला श्राद्ध नैमित्तिक श्राद्ध कहलाता है।

3 काम्य श्राद्ध – जब किसी विशेष कामना या सिद्धि की प्राप्ति के लिए श्राद्ध किया जाता है, जैसे पुत्र प्राप्ति की इच्छा या उन्नति की कामना से तो उसे काम्य श्राद्ध कहते हैं।

  1. वृद्धि श्राद्ध – सौभाग्य-वृद्धि के लिए किया जाने वाला श्राद्ध वृद्धि श्राद्ध कहलाता है। संतान के जन्म या पारिवारिक मांगलिक कार्य जैसे शादी-ब्याह में यह किया जाता है।
  2. सपिण्डन श्राद्ध – हमारे शास्त्र बताते हैं कि जब किसी जीव की मृत्यु होती है, तो वह प्रेत रूप में परिवर्तित हो जाता है। प्रेत से पितरों में उसे शामिल कराने की प्रक्रिया को सपिण्डन कहते हैं।
  3. पार्वण श्राद्ध – इस श्राद्ध को अमावस्या के विधान के अनुरूप करने की प्रथा है। इसे उसी दिन किया जाता है जिस तिथि को व्यक्ति की मृत्यु हुई हो। यह पिता, माता, दादा-दादी, परदादा, परदादी और सप्तनीक के निमित्त करते हैं।
  4. गोष्ठी श्राद्ध – सामूहिक रूप से या समूह में संपन्न किए जाने वाले श्राद्ध को गोष्ठी श्राद्ध कहते हैं।
  5. कर्मांग श्राद्ध – कर्मांग का शाब्दिक अर्थ कर्म के अंग से होता है। इसीलिए यह श्राद्ध किसी विशेष संस्कार के अवसर पर ही किया जाता है। इसमें विभिन्न संस्कार जैसे पुंसवन व सीमंतोन्नायन जैसे अवसरों को प्राथमिकता भी दी जाती है।
  6. शुद्धयर्थ श्राद्ध – शुद्धि के लिए किए जाने वाले श्राद्ध को शुद्धयर्थ श्राद्ध कहते हैं। इसमें ब्राह्मण भोज अनिवार्य होता है।
  7. तीर्थ श्राद्ध – तीर्थ पर जाने पर जो श्राद्ध कर्म किया जाता है, उसे तीर्थ श्राद्ध कहते हैं।
  8. यात्रार्थ श्राद्ध – यात्रा के उद्देश्य या यात्रा की सफलता के लिए किये जाने वाले श्राद्ध को यात्रार्थ श्राद्ध कहते हैं। इसे घृतश्राद्ध के नाम से भी जाना जाता है।
  9. पुष्टयर्थ श्राद्ध – अपनी पुष्टि की इच्छा से किये जाने वाले श्राद्ध को इस श्रेणी में रखा जाता है। इसमें शारीरिक स्वास्थ्य और धन संबंधी बढ़ोत्तरी के लिए भी इन्हें संपन्न किया जाता है।

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